नई दिल्ली: मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है और इसे इस्लाम धर्म में अत्यंत पवित्र माना जाता है। यह महीना केवल मुस्लिम नए साल की शुरुआत का प्रतीक ही नहीं है, बल्कि इसमें घटित हुई करबला की घटना के कारण यह विशेष रूप से श्रद्धा, शोक और आत्मचिंतन का समय होता है। मुहर्रम का दसवाँ दिन, जिसे ‘यौम-ए-आशूरा’ कहा जाता है, इस्लामिक इतिहास की सबसे दुखद घटनाओं में से एक के रूप में जाना जाता है।
करबला की घटना:
मुहर्रम की सबसे महत्वपूर्ण घटना 680 ईस्वी (61 हिजरी) में करबला नामक स्थान पर हुई, जहाँ पैग़ंबर मुहम्मद साहब के नवासे हज़रत इमाम हुसैन (र.अ.) और उनके 72 साथियों ने अन्याय के खिलाफ खड़े होकर अपने प्राणों की आहुति दी। यज़ीद की अत्याचारी सत्ता के सामने झुकने की बजाय, हुसैन (र.अ.) ने न्याय, सच्चाई और इंसानियत की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया।
मुहर्रम का महत्व:
मुहर्रम को मुस्लिम समाज में विशेष श्रद्धा से मनाया जाता है। शिया मुसलमान इस महीने को विशेष रूप से शोक का महीना मानते हैं और इमाम हुसैन (र.अ.) की शहादत की याद में मातम करते हैं, ताजिए निकालते हैं और मजलिसों का आयोजन करते हैं। सुन्नी मुसलमान भी इस महीने को आदर और इबादत का समय मानते हैं। बहुत से लोग आशूरा के दिन रोज़ा (व्रत) रखते हैं, जो पैग़ंबर मुहम्मद (स.अ.) की सुन्नत है।
आध्यात्मिक संदेश:
मुहर्रम केवल एक दुख भरा महीना नहीं, बल्कि यह सिखाता है कि सच्चाई की राह में कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ, उसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। हज़रत इमाम हुसैन (र.अ.) का बलिदान हमें अन्याय के विरुद्ध खड़े होने, साहस दिखाने और इंसानियत के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देता है।
सत्य के लिए:
मुहर्रम का महीना हमें केवल एक ऐतिहासिक घटना की याद नहीं दिलाता, बल्कि यह हमारे अंदर आत्मचिंतन, सहानुभूति और न्यायप्रियता जैसे गुणों को भी जाग्रत करता है। करबला का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था कि सत्य के लिए खड़ा होना ही असली धर्म है।